यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 23 सितंबर 2012

इस देश की शिक्षा पद्धति कैसा भारत निर्माण कर रही है ?



      आज सुबह समाचार पत्र को उठाते ही एक खबर पर नज़र गयी
            " रोडवेज की प्रतियोगिता परीक्षा के प्रश्न पत्र १ से २ लाख रुपए में परीक्षा से पहले बाजार में बिके|"
      क्या इस देश की प्रतियोगिता परीक्षाओ का स्तर इतना कठिन है या फिर सरकारी नौकरी की चाहत आज कल के युवाओ में इतनी प्रबल है कि वो इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है ? इस देश का युवा आज हर प्रकार से सरकारी काम काज का और सरकारी योजनाओं में , सरकारी कर्मचारियों के कार्य के तौर-तरीको में  मीन मेख निकाल रहा है तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इतना गरमा रहा है वही इस भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए इतना आतुर दिख रहा है |
       इसके पीछे क्या कारण है ? इसके लिए हमें एकदम मूल में जाना होगा , केवल उपरी तौर से सोचने से काम नहीं चलेगा | इसका मूल कारण है इस देश की शिक्षा पद्धति जो केवल अंको पर , प्रतिशत पर आधारित है और बच्चो और युवाओ को केवल एक ही दिशा में सोचने पर मजबूर करती है कि कैसे येन केन प्रकरेण इस अंधी दौड़ में उच्चतम प्रतिशत प्राप्त किये जाए और अपने वजूद को स्थायित्व प्रदान किया जाए और इस अंधी दौड़ में माता-पिता भी उनके साथ दौड़ने लगते है |
      इस अंधी दौड़ को रेखांकित करता सिनेमा का एक चलचित्र "थ्री इडियट्स" एक सारगर्भित सन्देश देता हुआ प्रतीत होता है मगर इस सन्देश को केवल मनोरंजन की विधा मान लिया गया है |
       मैंने कई स्थानों पर देखा है कि छोटी मोटी इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रोनिक्स की दुकानों पर या फिर मोटर गेराजो में काम करते हुए कम पढ़े लिखे मगर इस क्षेत्र में  केवल पुस्तकों का अध्ययन कर उच्च अंक प्राप्त करे पढ़े लिखे इंजीनियरों से बेहतर जानकारी रखने वाले कई युवा मौजूद है , मगर हमारे देश की सामजिक व्यवस्था ने उन्हें हाशिये पर डाल रखा है| किसी भी सरकारी उपक्रम या निजी फेक्टरियो में उनकी प्रेक्टिकल योग्यता के अनुसार उसमे रोजगार उपलब्ध नहीं है क्यों कि उनके पास डिग्री नहीं है , यहाँ तक कि उन बड़ी बड़ी कम्पनियों में भी जिनको स्थापित करने वालो ने केवल अपनी प्रेक्टिकल योग्यता के बस पर उनको विकसित किया आज वो भी अपनी फेक्टरियो में, कम्पनियों में युवाओ को रोजगार देने के लिए उनके पास एक कागज़ डिग्री होने की अपेक्षा रखते है, भले ही उसे कार्य आये या नहीं | यहाँ इस बात के विरोध में कहने वाले बोल सकते है कि निजी उपक्रमों में एक बार भले ही डिग्री के बल पर रोजगार पाया जा सकता है मगर बाद में उसकी योग्यता ही उसे उच्च स्तर तक पहुंचाती है , तो यहाँ ये बात उत्तर स्वरुप कही जा सकती है कि मान लो उसने डिग्री के बल पर प्रवेश ले लिया और योग्यता नहीं है तो उसको निकाल बाहर कर दिया गया अब वो युवा मानसिक अवसाद में घिर जाएगा क्यों कि उसने अपनी पूरी मेहनत से इस संस्थान में प्रवेश लेने के लिए अपने बचपन से पुस्तको को रटना शुरू कर दिया था और इस दौड़ में वो अपने आस पास की घटनाओं पर परिदृश्यो पर अपनी प्रतिक्रिया चाहते हुए भी नहीं दे सका क्यों कि उसे एक अदद नौकरी चाहिए थी और जब वही नौकरी उस से छीन गयी तो या तो वो अवसाद का शिकार हुआ और अपने साथ साथ अपने परिवार को भी इस घेरे में ले लिया , या फिर उसने समय के अनुसार अपने आप को बदलने का श्रम किया अब ये बदलाव लाने वाला श्रम करने वाले युवाओ का प्रतिशत मात्र १० % है | 
      वो युवा जो प्रेक्टिकल योग्यता रखता है अपने कार्य के प्रति सुदूर कहीं छोटी मोटी दुकानों में या वर्कशॉप में दिहाड़ी मजदूर के जैसे काम करता हुआ मिल जाएगा |
     इस देश की शिक्षा पद्धति को लार्ड मेकाले द्वारा डिजाइन ही इस रूप में किया गया है कि ये केवल अंधी दौड़ में दौड़ने वाले नौजवान भारत को पैदा करें , ना कि सोचने समझने वाला , हर क्रिया पर प्रतिक्रिया देने वाला नौजवान भारत|
      पुरातन काल में इस देश में इस प्रकार की शिक्षा पद्धति थी कि सामान्य लिपि और अंकगणितीय ज्ञान देने के पश्चात् बालक जिसकी उम्र १०- १५ वर्ष होती थी उस समय जिस क्षेत्र में रूचि रखता था उसे उसी क्षेत्र का ज्ञान दे कर विकसित किया जाता था , यथा  चित्रकारी, युद्ध निति, अर्थनीति , राजनीति, संस्कृत शास्त्री ,  वेदपाठी , आयुध निर्माण , गणितज्ञ , लिपिकार, चिकित्सा   इत्यादि अनेक क्षेत्र थे जो बालक को युवा होने तक उसके पसंदीदा विषय में निपुण कर देते थे | और इसी पद्धति को मेकाले ने देखा और उसे ब्रिटेन में लागू करने के लिए प्रयास शुरू किये और आज भी आप विदेशो में इस प्रकार की शिक्षा पद्धति का वर्तमान स्वरुप देख सकते है|  चूँकि अंग्रेजो को यहाँ अपनी सत्ता निर्बाध रूप से चलानी थी तो उन्होंने सबसे पहला काम यहाँ की शिक्षा पद्धति को समाप्त करने का किया , गुरुकुल पद्धति को तहस नहस कर दिया|
"किसी भी देश पर शासन करना हो या उसे अपना गुलाम बनाना हो तो उस देश के सांस्कृतिक मूल्यों को , उसकी संस्कृति को , उसके इतिहास को नष्ट कर दो| साम्राज्यवादियों का और साम्राज्यवाद फैलाने वालो का यही एक अकाट्य नियम है |"
     और इस नियम को काफी चतुराई से अंग्रेजो ने इस देश पर लागू किया और हम आज भी इसका तोड़ नहीं ढूंढ़ पाए है |
 और इस मेकाले की शिक्षा पद्धति का शिकार हुए हम आज अपने देश के युवाओ की सोच को केवल उसके चारो और बने घेरे तक सीमित कर रहे है | उसे एक वलय रेखा पर चलने वाला युवा बना कर छोड़ दिया है जो केवल स्वयं को और स्वयं के परिवार को स्थायित्व कैसे दे, और उसके बाद अपने बच्चो को? वह उसी वलय में घूम रहा है और आने वाली पीढ़ी को भी केवल उसी वलय पर बिना कदम डिगाए कैसे चला जाए इस बात की शिक्षा दे रहा है |
       अगर हमें इस देश में सम्पूर्ण परिवर्तन करना है तो सबसे पहले "गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया" द्वारा इस देश पर जबरदस्ती थोपी गयी मेकाले की शिक्षा पद्धति को जड़ से उखाड़ कर फेकना होगा | क्यों कि भले ही आप कांटे या कष्ट देने वाले पेड़ की शाखाओ और टहनियों को काट काट कर जलाते रहे , वो फिर से उग आता है जब तक की उसको समूल नष्ट नहीं किया जाता |


       
       
      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें